Thursday, June 08, 2006

एक अजीब दास्तान

उन लहरों से जब मैने ये पूछाँ
तुम खुद को क्यूँ इतना तडपाती हों
और इस किनारे पे आकर
वापस क्यूँ चली जाती हों

तो उन लहरों ने मुझसे कहा
इस किनारे कि चाहत ही, मुझे खींच लाती हैं
पर यहाँ आकर मेरी चाहत उस
किनारे के गम मे बदल जाती हैं

उसका वो हसीन नजा़रा
फिर मेरे आगोश मे खो जाता हैं
और उसकी तनहाई का गम
ही मुझे सागर मे वापस ले जाता हैं

हम दोनों कि चाहत की ये अजीब दास्तान हैं
और हमारे मिलन का न कोई रास्ता हैं
इसलिए हर रोज़ मै इस किनारे पे आती हूँ
और इसे महँसूस कर वापस चली जाती हूँ

उन लहरों को सुन, मुझे भी एक बात याद आ गई
उन लहरों से मेरी जिन्दगी भी मेल खा गई
मेरे अपनो की चाहत भी मुझे, उनके पास खींच लाती हैं
और दुसरे ही पल उनकी खुशी के लिए, मुझे वापस ले जाती हैं

हाँ, यही जिन्दगी की अजीब दास्तान हैं
आगे बढने का शायद यहीं रास्ता हैं
अपनो से बिछडने का गम होता है जरुर
पर उस मंजिल की तरफ बढने का यही रास्ता हैं

hello frnds,

This one is very philosophical poem.. and i want to know how many of you understud it exactly.
whats the real feelings behind this poem.Lets see how many of you can think in that way..
you can quote your answers in the comments section..
so plz go for that...


URS--

:"SHRI"KANT":
"------"-------"

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